बात की जाए उनके कुटुम कबीले की ,भाइयों की कतार में वह छोटे थे लेकिन पद जिम्मेवारी उन्होंने ने पिता श्री के जाने के बाद और उनके रहते भी सभी की उठा ली थी। इसको बसाना उसको संवारने में जीवन का एक बड़ा हिस्सा व्ययतीत होता रहा , इस बीच खुद सजे संवरे सृजन की भूमि पर तेज़ी से बढ़ने वाली फसल की तरह छा गए साहित्याकाश में। व्याख्याता के पद पर रहते पीएच।डी। संपन्न की ,सेवानिवृत्ति के अनन्तर डी. लिट.
सम्मेलनों का दौर धाराप्रवाह चला ,एक के बाद एक साहित्यिक संस्थाएं उन्हें सम्मानित कर अपना मान बढ़ाती रहीं। इसे समेटना मेरे लिए आंकड़ा संग्रह से ज्यादा नहीं होगा। सार वह व्यक्ति था वह शख्सियत जो नन्द लाल मेहता 'निर्दोष ' से आगे निकल वागीश मेहता हो गई।
शब्दान्वेषी शब्दचितेरी बन बैठी। उनके गिर्द एक 'शब्दालोक' का घेरा था।आभामंडल था।
शब्दालोक ही उनका हेबिटाट था।यहां उनके साथ एक भली सीधी सरल निर्मल विजय जी मेहता उनकी सेवा में सदैव खड़ी देखीं हम ने। उनका समर्पण भाव इतना प्रेमासिक्त तरल रहा मुझ जैसों के दिलो दिमाग में वह' गुरु माता ' रूप हो काबिज़ हो गईं। आज भी उनका वही सौम्य रूप देखा जा सकता है।
"वो जो कुछ बोलते थे किताबों में नहीं मिलता था ,न जाने कहाँ से कौन ब्रह्मा आकर ज्ञान का आगार रख जाता था उनके हृदय गह्वर में रोप जाता था ,...... "यही उदगार थे उनके इस मौके पर वह बोलती रहीं और रौ पड़ी।
नारी मूलतया एक पत्नी एक माँ होती है। वह इसी निष्कलुष निर्दोष रूप में बनी रहीं हैं देती रहीं हैं अपना सर्वस्व परिवार को। मुझे 'गुरु -माता'वागेश्वरी मेहता जी का ख़ास स्नेह मिलता रहा है। यद्यपि मैं उनसे उम्र में बड़ा हूँ लेकिन कद काठी कर्म में वह अग्रणी हैं। पूज्य हैं। ये शब्द बयानी आधी अधूरी समझी जायेगी इसका पूरा वजन न जाना समझा जाएगा यहां यदि मैं उनके परम सुयोग्य पुत्र धीरज का ज़िक्र न करूँ ,जिन्होंने अपने नन्हे कन्धों पर गुरुतर सेवा का दायित्व उठाया ,मेक्स अस्पताली आवधिक सुविधा वागीश जो को भरपूर मिली आखिरी लम्हात तक। धीरजा पत्नी श्री पूजा कुमार और बेटी इस द्व्य की बाबू आद्या उन्हें बल देते रहे अपनी प्रार्थनाओं में।
वागीश जी की विदूषी बेटी प्रीती तनेजा जी ,अपनी वकालत को एक तरफ सरका सेवा में जुटी रहीं ,हर लम्हात मुकेश जी भी दामाद से आगे निकल 'बेटे' के कर्मठ रूप में सामने आये।
यह एक और धरोहर है विरासत भी बल भी वागीश जी का। उनको वागीश बनाने वाली कोई एक शह नहीं रहीं है।
वाणी में वाक्देवी यूं ही नहीं विराजी थीं।कुछ तो था जो आज भी अनुगूंजित है हवाओं में आकाश काल के सतत तनौबे में।
हरे कृष्णा ! हरे राम !
जयश्री कृष्णा !जयश्री राम !जयहिंद की सेना प्रणाम !
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