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कबीर कहा गरबियो, इस जोवन की आस । केसू फूले दिवस दोइ, खंखर भये पलास ।।

ज्ञान बिरह कौ अंग -कबीर 

हिरदा भीतर  दौं  बलै ,धूवाँ प्रगट न होइ ,

जाकै लागी सो लखै ,कै जिहि लाई सोइ। 

Inside the heart there burns the fire ,

But nowhere the smoke is visible ,

He only feels the burn who's burnt ,

Or, he who did the fire enkindle.

भावसार :


शब्दार्थ :

हिरदा-हृदय।
भीतरि- के अंदर।
 दौं-दावाग्नि, आग, जंगल की आग।
बलै- जल रही है।
धूवाँ -धुआँ।
प्रगट -प्रकट।
न होइ- नहीं होता है।
जाके लागी - जिसको लगी है।
लखै-देखे।
के जिहि -या जो।
लाई - लागी।


कबीर कहते हैं कि  हृदय में अनवरत रूप से विरह की दावाग्नि जलती रहती है. इस निरंतर जलने वाली आग का  धूआँ  बाहर किसी को  दृष्टिगोचर नहीं होता है. ईश्वर प्रेम अद्भुत  होता है जिसका वर्णन अकथनीय होता है और नितांत ही व्यक्तिगत भी होता है। इसे या तो साधक समझ सकता है या फिर ईश्वर ही। ईश्वर प्रेमी के हृदय में निरंतर  दावाग्नि जलती रहती है। 


इसका धुआँ बाहर प्रकट नहीं होता है जिससे भाव है की उसका प्रदर्शन, पीड़ा बाहर किसी को पता नहीं चल पाती है। गुरु ही ईश्वर का रूप होता है, अतः इसे गुरु/ईश्वर या भक्त ही जान
सकता है। विरह की पीड़ा को कोई अन्य समझ नहीं सकता है। कबीर  ने इस साखी में भक्ति और विरह को नितांत व्यक्तिगत बताया है। 

दौं लागो सायर जल्या , पंषी बैठे आइ ,

दाधी देह न पालवै ,सतगुरु गया लगाइ। 

In fire ablaze the sea was burnt ,

The birds flew away in escape ,

The true guru had exhorted 

That burnt body doesn't germinate.

भावसार:

ज्ञान-विरह की अग्नि से मानस-सरोवर जल गया। अब हंस रूपी शुद्ध जीव ऊपर स्थित हो गया अर्थात् वासनाओं और पृथक् वैयक्तिक सत्ता से विमुक्त हो गया। पृथक् वैयक्तिक सत्ता रूपी देह भस्म हो गयी। अब वह पुन: नहीं पनप सकती अर्थात् स्वयं का अहंभाव सदा के लिए जाता रहा। अब वह पुन: पल्लवित न हो सकेगा। 

आहेड़ी दौं लाइयाँ ,मृग पुकारें रोइ ,

जा वन में क्रीला करी ,दाझत है वन सोइ। 

The poacher set forest ablaze ,

Weeping aloud exclaims the deer :

'The same forest is burning now 

Where i enjoyed sportful amour'

भावसार :गुरु रूपी शिकारी शिष्य के मनरूपी देहात्मक वन में ज्ञान-विरह की आग लगता है और वह वासनासक्त जीव रूपी मृग चिल्ला-चिल्लाकर रोता है कि जिस विषय-वासना रूपी वन में भोग कर रहे थे, वह अब जल रहा है,नष्ट हुआ जा रहा है। अर्थात् मृग और आसक्ति-मुक्त जीवन में केवल भेद यह है कि मृग को वन का मोह बना रहता है, परन्तु आसक्ति-मुक्त जीव को क्षण भर के लिए धक्का-सा तो लगता है, परन्तु बाद में उसे मधुर शांति का अनुभव होता है।

समंदर लागी  आगि ,नदियाँ जलि कोइया भइँ ,

देखि कबीरा जागि ,मँछी रूषां चढ़ि गईं गइन्  . 

The sea caught fire and all rivers 

Were burnt and to charcoal reduced ,

Kabir witnessed it full awake 

(And saw ) the fish up the tree moved . 


समंदर - समुद्र।
लागी - लगी (समुद्र में आग लगी )
आगि- अग्नि (ज्ञान की अग्नि )
नदियां जलि - नदी जल गई।
कोइला भई- कोयला  हो गई है।
देखि कबीरा - देखकर कबीर साहेब।
जागि- जाग्रत होना, सचेत होना।
मंछी -मछली।
रूषां चढ़ि गई-पेड़ पर चढ़ गई।


विषय वासनाओं रूपी समुद्र में ज्ञान की अग्नि लग गई है जिससे विषय विकारों को पोषण देने वाले विषय, लोभ, मोह ,माया आदि जल कर कोयला हो गई हैं। विरह की इस अग्नि में जीवात्मा रूपी मछली का आश्रय स्थान छूट जाने पर वह पेड़ पर चढ़ गई है। नदी से आशय इन्द्रियों से है जो विषय वासनाओं का पोषण करती हैं । ज्ञान की अग्नि में इन्द्रियों की नदी जलकर कोयला हो गई है। 
 
ऐसे में जीवात्मा पुनः अपने शुद्ध रूप में आ जाती है और भक्ति रूपी वृक्ष पर चढ़ गई है। मछली के पेड़ पर चढ़ने से आशय है की जीवात्मा ब्रह्म प्राप्ति की ओर अग्रसर हो गई है। इस साखी में जीवात्मा को सन्देश है कि  वह जाग्रत होकर पूर्ण ब्रह्म की प्राप्ति की ओर बढे। 


कबीर कहा गरबियो, इस जोवन की आस ।
केसू फूले दिवस दोइ, खंखर भये पलास ।।।।

कबीर कहते हैं कि यौवन पर गर्व करना व्यर्थ है। यह क्षणभंगुर है। पलाश के फूल के समान इसकी बहार थोड़े दिनों के लिए है। जैसे यह फूल थोड़े ही दिनों में मुर्झा कर गिर जाता है, वैसे ही जवानी की प्रफुल्लता भी अल्प दिनों की होती है। कुछ दिनों के पश्चात जैसे पलाश पत्र-पुष्प-विहीन होकर ठूँठमात्र रह जाता है, वैसे ही यह शरीर भी यौवन-विहीन होकर कंकालमात्र रह जाता है।

सातौ सबद जु बाजते, घरि घरि होते राग ।
ते मंदिर खाली पड़े, बैठन लागे काग ।।।।

जिन मंदिरों और प्रासादों में सातों स्वर के बाजे बजते थे और विभिन्न प्रकार के राग गाए जाते थे, वे आज खाली पड़े हुए हैं और उन पर कौए बैठते हैं। सांसारिक वैभव की यही क्षणभंगुरता है।

कबीर पट्टन कारिवाँ, पंच चोर दस द्वार ।
जम राना गढ़ भेलिसी, सुमिरि लेहु करतार।।।।

कबीर कहते हैं कि जीव (सौदागर) इस शरीर रूपी नगर को एक सुरक्षित स्थान समझकर सारा सांसारिक व्यवहार अर्थात् व्यापार टिका हुआ है। किन्तु उसे यह ज्ञात नहीं कि इस शरीर रूपी नगर में पाँच चोर (काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह) विद्यमान हैं और इसमें दस द्वार भी हैं। यह वैसा सुरक्षित और अभेद्य दुर्ग नहीं है, जैसा कि अज्ञानी जीवों ने समझ रखा है। इस दुर्ग पर यमराज का आक्रमण भी होगा और वह क्षणभर में इस गढ़ को ध्वस्त कर देगा। इसलिए हे जीवों ! स्रष्टा का स्मरणकर लो।

कबीर कहा गरबियो, ऊँचे देखि अवास ।
काल्हि परौ भुई लोटना, ऊपरि जमिहै घास ।।।।

कबीरदास कहते हैं कि ऊँचे-ऊँचे महलों को देखकर क्यों गर्व करते हो? शीघ्र ही निधन होने पर जमीन के अन्दर लेटना होगा अर्थात् दफना दिए जाओगे और ऊपर घास जम जाएगी।

ऐसा यहु संसार है, जैसा सैंबल फूल ।
दिन दस के व्यौहार में, झूठै रंगि न भूल ।।

यह संसार सेमर के फूल के समान है, जो ऊपर से देखने में सुन्दर और मोहक प्रतीत होता है, किन्तु उसके भीतर कोई तत्त्व नहीं होता। अल्पकाल के जीवन और उसकी विरंगात्मक भुलावे राग रंग में नहीं आना चाहिए।

कबीर मंदिर लाख का, जड़िया हीरै लालि ।
दिवस चारि पा पेखनाँ, बिनसि जाइगा काल्हि ।।

कबीर कहते हैं कि यह शरीर लाक्षागृह के समान है, जो हीरे-लाल से जड़ा गया है अर्थात् बहुमूल्य बनाया गया है। किन्तु यह चार दिन का दिखावा है और अल्पकाल में ही विनष्ट हो जायगा।

कबीर जे धंधै तो धूलि, बिन धंधै धूलै नहीं ।
ते नर बिनठे मूलि, जिनि धंधै मैं ध्याया नहीं ।।

कबीर कहते हैं कि कर्मों से भागने से काम नहीं चलेगा। यदि कर्म को करते रहोगे तो तुम्हारा अन्त:करण धुल जाएगा। तुम स्वच्छ हो जाओगे। बिना कर्म किये स्वच्छता नहीं आती। कर्म से कोई नष्ट नहीं होता। वही व्यक्ति मूलत: नष्ट हो जाते हैं जो कर्म में ईश्वर का ध्यान नहीं रखते।

कहा कियो हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ ।
इतके भये न उत के, चाले मूल गँवाइ ।।

जीव को स्वयं पर पछतावा हो रहा है कि इस संसार में आकर हमने क्या किया, इस विषय में यहाँ से जाने के बाद प्रभु के सामने हम क्या कहेंगे ? हम न तो इस लोक के हुए, न परलोक के। हम ने अपना नैसर्गिंक सरलता भाव जगत भी गँवा दिया।

कबीर यहु तन जात है, सकै तो ठौर लगाय ।
कै सेवा करि साधु की, कै गोविंद गुन गाय ।।

कबीर कहते हैं कि यह मानव शरीर नश्वर है। इसलिए हे जीव! इसके रहते हुए तू इसका सदुपयोग कर ले। तू या तो सन्तों की सेवा कर अथवा गोविन्द के गुणगान से अपने जीवन को सार्थक बना।

कबीर यहु तन जात है, सकै तो लेहु बहोरि ।
नांगे हाथौं ते गए, जिनके लाख करोरि ।।

कबीर कहते हैं कि हे जीव! यह तेरा मानव शरीर व्यर्थ में नष्ट हो रहा है। यह आकर्षक विषयों, सम्पत्ति के संग्रह आदि में विनष्ट हो रहा है। हो सके तो इसको इन क्षणिक सुखों और प्रलोभनों से बचा ले, क्योंकि सम्पत्ति-संग्रह से कोई लाभ न होगा। जिन्होंने लाखों-करोडों कमाया, वे भी इस संसार से खाली हाथ चले गये।

यह तन काचा कुंभ है, लियाँ फिरै था साथि ।
ठपका लागा फुटि गया, कछू न आया हाथि ।।

यह शरीर, जिसे तू बड़े गर्व के साथ लिये घूम रहा है, कच्चे घड़े के समान है, जो जरा-सा धक्का लगने से फूट जाता है और फिर कुछ भी हाथ नहीं आता। तेरा शरीर भी वैसा ही नश्वर है। इसका कोई ठिकाना नहीं।

कबीर अपने जीव तैं, ए दोइ बातैं धोइ ।
लोभ बड़ाई कारनैं, अछता मूल न खोइ ।।

कबीर कहते हैं कि हे जीव! अपने मन से तुम दो बातों को निकाल फेंको-एक तो लोभ , दूसरे आत्म-प्रशंसा की तृष्णा। इन दोनों दोषों के कारण अपने पास विद्यमान आत्मा रूपी पूँजी को मत खोओ।

खंभा एक गयंद दोइ, क्यों करि बंधसि बारि ।
मानि करै तौ पिउ नहीं, पीव तौ मानि निवारि ।।


हे जीव! खम्भा रूपी शरीर एक ही है और अहंभाव और प्रेम रूपी हाथी दो हैं। दोनों को तुम एक साथ कैसे बाँध सकेगा? यह कैसे सम्भव है? यदि तू अहंभाव में रहता है तो उसके साथ प्रिय नहीं रह सकते। यदि तू प्रिय अर्थात् प्रभु को रखना चाहता है तो मान को निकालना पड़ेगा।

दीन गँवाया दुनी सौं, दुनी न चाली साथि ।
पाइ कुहाड़ा मारिया, गाफिल अपनैं हाथि ।।

हे जीव! तुमने सांसारिक मोह में अपना धर्म खो दिया, परन्तु वह संसार जिसके लिए तुमने अपना धर्म खो दिया, तेरे साथ न गयी। तू इतना अचेतन है कि अपने ही हाथों अपने पैर में तूने कुल्हाड़ी मार लिया है अर्थात् अपने मोह से तूने स्वयं अपना जीवन नष्ट कर लिया है।

यह तन तो सब बन भया, करम जु भए कुहारि ।
आप आपकौं काटिहैं, कहैं कबीर बिचारि ।।

यह शरीर वन के समान है और कर्म कुल्हारी। कबीर विचार कर कहते हैं कि हे जीव! तू अपने ही कर्म रूपी कुल्हाड़ी से अपने जीवन रूपी वन को काट रहा है अर्थात् नष्ट कर रहा है।

कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाइ ।
राम निकुल कुल भेंटि, सब कुल रहा समाइ ।।

जो केवल ससीम, कुटुम्ब, वंश आदि के मोह में पड़ा रहता है, वह वास्तविक कुल अर्थात् पूर्ण, ब्रह्म या भूमा को खो देता है। कुटुम्ब आदि ससीम के मोह में पड़े रहने से पूर्ण या सर्वस्व की प्राप्ति नहीं हो पाती है। राम निकुल हैं उसी में तू वंश आदि ससीम का समर्पण कर दे। उसी में ससीम समाया हुआ है अर्थात् वह सब में व्याप्त है।

दुनियाँ भाँड़ा दुख का, भरी मुहाँमुह भूष ।
अदया अल्लह राम की, कुरलै कौनी कूष ।।

यह संसार तृष्णा से लबालब भरे हुए पात्र स्वरूप है। अत: यह दु:ख का भण्डार है। इसमें पूर्ण तृप्ति के लिए प्रयास करना व्यर्थ है। अल्लाह या राम की दया के बिना यह तृष्णा समाप्त नहीं हो सकती। हे जीव! जब सारा संसार एक अतृप्त वासना का भण्डार है तो ऐसे संसार में किस खजाने के लिए चीखता रहता है?

जिहि जेवरी जग बंधिया, तू जिनि बंधै कबीर ।
ह्वैसी आटा लोन ज्यौं, सोना सवां सरीर ।।

कबीर कहते हैं कि जिस माया की रज्जु से जगत् बँधा हुआ है, तू उसमें मत फँस। यदि तू उसमें फँसता है तो तेरा यह सोने के समान बहुमूल्य शरीर अर्थात् मानव जीवन का व्यक्तित्व वैसे ही हो जायेगा जैसे आटा में नमक मिलाने पर इस प्रकार घुल-मिल जाता है कि उससे पृथक् नहीं किया जा सकता।

कहत सुनत जग जात है, विषय न सूझै काल ।
कबीर प्यालै प्रेम के, भरि भरि पिबै रसाल ।।

उपदेशों को कहते और सुनते हुए संसार के लोगों का जीवन समाप्त होता जाता है। विषय में पड़े हुए उन्हें काल की सुधि नहीं रहती। किन्तु कबीर जैसे सन्त विषय के प्याले को मुख से नहीं लगाते। वे मधुर, प्रेम से परिपूर्ण प्याले को छक-छककर पीते हैं।

कबीर हद के जीव सौं, हित करि मुखाँ न बोलि ।
जे राचे बेहद सौं, तिन सौं अंतर खोलि ।।

कबीर कहते हैं कि ससीम में फँसे हुए लोगों की संगत में मत पड़ों। उनसे अधिक प्रेम की वाणी न बोलो, अन्यथा तुम भी उनकी बातों में फँस जाओगे। जो साधक असीम में अनुरक्त हैं, उन्हीं से तुम अपने हृदय की बात कहो। उन्हीं का संगत करो और उन्हीं की बातों पर चलो।

कबीर केवल राम की, तूँ जिनि छाड़ै ओट ।
घन अहरन बिच लोह ज्यौं, घनो सहै सिरि चोट ।।

कबीर कहते हैं कि हे जीव! तू केवल प्रभु का स्मरण कर, केवल उसी को अपना अवलम्ब बना। वही तुझको सब दु:खों से मुक्त कर सकता है, अन्यथा जैसे निहाई पर रखा हुआ लोहा हथौड़े की चोट से पीटा जाता है, वैसे ही तुझे सिर पर सांसारिक दु:खों की चोट सहनी पड़ेगी।

ऊजल कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाँहि ।
एकै हरि का नाँव बिन, बाँधे जमपुरि जाँहि ।।

कबीर कहते हैं कि लोग प्राय: श्वेत वस्त्र धारण करते हैं और अपने मुख को सुशोभित करने के लिए पान-सुपारी का सेवन करते हैं। किन्तु प्रभु के भजन के बिना इस बाह्य सजावट से काम नहीं चलेगा। केवल हरि-स्मरण से ही मुक्ति होगी।

इत पर घर उत घर, बनिजन आए हाट ।
करम किरानाँ बेंचि करि, उठि कर चाले बाट। 

यह संसार जीव का नैसर्गिक धाम नहीं है। वास्तविक धाम तो केशवधाम है, जहाँ से हम आए हैं। संसार एक बाजार के समान है, जहाँ पर लोग वाणिज्य के लिए आते हैं और अपना कर्म रूपी सौदा बेंचकर अपने-अपने मार्ग पर चले जाते हैं। इसलिए हे जीव! संसार तेरा वास्तविक धाम नहीं है वरन् प्रभु ही तेरा वास्तविक शाश्वत धाम है।

मैं मैं बड़ी बलाइ है, सकै तो निकसो भागि ।
कब लग राखौं हे सखी, रुई पलेटी आगि ।।

अहं बुद्धि, आपा बहुत बड़ा रोग है। इसलिए तू उससे मुक्त होने का प्रयत्न कर। क्योंकि ‘मैं मैं’ से लिप्त बुद्धि आग से लिपटी हुई रूई के समान है, जो तेरे सारे जीवन को नष्ट कर देगी।

कबीर नाव जरजरी, कूड़े खेवनहार ।
हलके हलके तिरि गए, बूड़े जिन सिर भार ।।

कबीर कहते हैं कि भव-सागर से पार जाने के लिए यह प्राण, मनयुक्त मानव तन एक नाव के समान है। यह ऐसी नाव है जो कि एक तो जर्जर हो चुकी है अर्थात् इसमें मोह, मद, राग, द्वेष आदि के छिद्र हो गए हैं, दूसरे इसका नाविक वासना और अहंभावयुक्त अज्ञानी मन है जो कि सर्वथा निकम्मा है। ऐसी नाव से जीवन-यात्रा कैसे पूरी हो सकती है। जिन लोगों ने भक्ति और साधना से अपनी वासना और अहंभाव को त्याग कर अपने को हल्का कर लिया है, वे ही इस भव-सागर को पार कर सकते हैं।

विकर्मों का बोझ ही हमारे साथ जाता है ,पुन्यकर्मी भवसागर से पार चले जाते हैं धत कर्मी डूब जाते हैं। 

हिन्दू मूये राँम कहि, मूसलमान खुदाइ ।
कहै कबीर सो जीवता, दुइ मैं कदे न जाइ ।।

हिन्दू लोग परमतत्व के लिए ‘राम-राम’ रटते हुए और मुसलमान ‘खुदा’ में सीमित करके विनष्ट हो गये। कबीर कहते हैं कि वास्तव में वही जीवित है जो राम और खुदा में भेद नहीं करता और दोनों में व्याप्त अद्वैत-तत्त्व को ही देखता है। जीवन की सार्थकता इस भेद-बुद्धि से ऊपर उठना है।

 कबीर का राम निर्गुनिया राम है God without form सनातन धर्म में दोनों में विभेद है :

सगुन मीठो खांड़ सो, निर्गुण कड़वो नीम ,

जाको गुरु जो परस दे ,ताहि प्रेम सो जीम। 

अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥

भावार्थ-

निर्गुण और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मति में नाम इन दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनों को अपने वश में कर रखा है।


सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा ,गावहिं मुनि पुराण बुधि बेदा ,

अगुन अरूप अलख अज जोई ,भगत प्रेम बस सगुन सो होई। 

जो गुन रहित सगुन कैसैं ,जल हिम उपल विलग नहीं जैसैं  ,

जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा ,तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा। 

राम सच्चिदानंद दिनेसा ,नहिं तहैँ मोह निसा लवलेसा। 

सहज प्रकाश रूप भगवाना ,नहीं तहैं पुनि बिज्ञान बिहाना। 

हर्ष विषाद ज्ञान अज्ञाना ,जीव धर्म अहमिति अभिमाना। 

राम ब्रह्म व्यापक जग जाना ,परमानंद परेस पुराना। 


सन्दर्भ :प्रस्तुत काव्यांश रामचरितमानस के बालकाण्ड से लिया गया है। पार्वती राम के सन्दर्भ में शिव से पूछतीं हैं कि जो राजपुत्र हैं स्त्री के विरह वियोग में व्याकुल हैं ,वह ब्रह्म कैसे हैं ?पार्वती के प्रश्न के समाधान शिव सगुण  और निर्गुण  के अभेद पर प्रकाश डालते हैं।

व्याख्या :

 शिव कहते हैं कि मुनिगण ,ग्यानी, वेदपुराण सबकी यही मान्यता है कि सगुण और निर्गुण में वास्तव में कोई भेद नहीं है। ब्रह्म मूलतया निर्गुण ,निराकार और अनिवर्चनीय हैं  जो अपने भक्तों के प्रेम के कारण सगुन रूप में प्रगट होते हैं ,अर्थात उनके दुखों के निवारण के लिए अवतार लेते हैं। 

जो निर्गुण है वह सगुण कैसे है ?इस प्रश्न का समाधान करते हुए शिव कहते हैं कि जैसे  पानी और बर्फ़ में  तत्वतया कोई भेद नहीं है वैसे ही  सगुण और निर्गुण दोनों एक ही है।

 जिसका नाम भ्रम रुपी अन्धकार को मिटाने  के लिए सूर्य रुपी प्रकाश के समान है वह स्वयं मोहग्रस्त कैसे हो सकता है ?

राम सत्य और आनंदस्वरूप सूर्य हैं ,वहां लेशमात्र भी मोह नहीं व्यापता है। वे सहज ही प्रकाशवान हैं ,वहां विज्ञान रुपी प्रात : काल नहीं होता है। प्रात : काल की ज्योति तो वहां होती है जहां पूर्व में रात्रि का  अन्धकार रहा हो। अर्थात दिन और रात का क्रम ,अन्धकार और प्रकाश का क्रम ,ज्ञान और अज्ञान का क्रम ,इस जगत के ज्ञान -विज्ञान का सत्य है  . 


राम इन सबसे परे हैं। सुख ,दुःख ,ज्ञान ,अज्ञान अभिमान  -यह सब जीव का स्वभाव है। परमानंद स्वरूप राम इन सबसे ऊपर हैं। इसे सारा संसार जानता है। वे प्रसिद्ध पुरुष हैं और प्रकाश के पुंज हैं। वे सबके स्वामी हैं। राम की महिमा का बखान कर ,रघुकुल मणि रामचंद्र जी को अपना स्वामी मानते हुए शिव जी ने उन्हें प्रणाम किया।  



 





सन्दर्भ -सामिग्री :

(१)https://badgujarmahesh.wordpress.com/2015/06/30/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%80/

(२ )Kabir -Selected coplets from the Sakhi In Transversion -Mohan Singh Karki 




 

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