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विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनी | शुनि चैव श्वपाके च पंडिता : समदर्शिन :||

 विद्या विनय सम्पन्ने  ब्राह्मणे गवि हस्तिनी | 

शुनि चैव  श्वपाके च पंडिता :  समदर्शिन :|| 

ज्ञानी महापुरुष विद्याविनययुक्त ब्राह्मण में और चांडाल तथा गाय , हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखने वाले होते हैं। 

व्याख्या : बेसमझ लोगों द्वारा यह श्लोक प्राय :  सम व्यवहार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। परन्तु श्लोक में 'समवर्तिन  :' न कहकर 'समदर्शिन  :' कहा गया है जिसका अर्थ है -समदृष्टि न कि सम -व्यवहार। यदि स्थूल दृष्टि से भी देखें तो ब्राह्मण ,हाथी ,गाय और कुत्ते के प्रति समव्यवहार असंभव है। इनमें विषमता अनिवार्य है। जैसे पूजन तो विद्या -विनय युक्त ब्राह्मण का ही हो सकता है ,न कि चाण्डाल का ; दूध गाय का ही पीया जाता है न कि कुतिया का ,सवारी हाथी पर ही की  जा सकती है न कि कुत्ते पर। 

जैसे शरीर के प्रत्येक अंग के व्यव्हार में विषमता अनिवार्य है ,पर सुख दुःख में समता होती है,अर्थात शरीर के किसी भी अंग का सुख  हमारा सुख होता है और दुःख हमारा दुःख। हमें किसी भी अंग की पीड़ा सह्य नहीं होती। ऐसे ही प्राणियों से विषम (यथायोग्य) व्यवहार करते हुए  भी उनके सुख दुःख में  समभाव होना चाहिए  .

टिप्पणियाँ

  1. श्रीमान, इस श्लोक का अध्याय व श्लोक क्रमांक बताने का कष्ट करें।

    धन्यवाद

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  2. बिल्कुल भद्दा और घटिया टिप्पणी की है आपने।
    भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी के भाव को भी नही समझा और गीता के श्लोक की टांग तोड़ डाली।
    आप जैसे पापियों को ईश्वर कभी क्षमा नही करेगा।

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  3. भाव समझे बिना टिप्पणी करना...कोई मूर्ख ही कर सकता है...धरती को मां बोलते है तो क्या तूं खड्डे में पैदा हुआ था..

    जवाब देंहटाएं
  4. शास्त्र पढ़ने के बाद इंसान को ज्ञान की प्राप्ति होती है तो वो ज्ञानी पुरुष किसी का भी शरीर हो लेकिन वो आत्मा के साथ परमात्मा का दर्शन करता है क्योंकि शरीर में आत्मा के साथ परमात्मा वास करते हे तो वो शरीर भी एक मंदिर है इसलिए किसी भी जिव का तिरस्कार नहीं करना चाहिए

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    उत्तर
    1. ये एकदम ठीक व्याख्यान है।
      जित देखो तित राम।
      भक्ताः सर्वत्र पश्यन्ति मयैव परमेश्वरः।

      हटाएं
  5. टिप्पणी एकदम सही है। चोर और सिपाही दोनो में एकात्मता है परंतु जब व्यवहार होता है तो सिपाही भगवान ही चोर भगवान को पकड़कर दंडित भी करता है जो न्यायोचित है। अद्वैत भाव में होता है क्रिया में नहीं।

    जवाब देंहटाएं
  6. श्रीश्री गीता जी के श्लोक के अर्थ बहुत हो सकते हैं।
    "पंडिताः समदर्शिनः" का जो अर्ध आपने निकाला वो इस श्लोक के भाव में कहीं दिखाई नहीं देता। यहां सम या असम व्यवहार का कोई उल्लेख नहीं है।
    सम दर्शिनः का सीधा अर्थ है "सबको समान देखना" क्योंकी पंडित योगी होते हैं और "समत्वम् योग उच्यते" के हिसाब से उनके दृष्टिकोण में "वासुदेव सर्वम् इति स महात्मा सुदूर्लभः" - गोया योग दृष्टिकोण से सम्पन्न वह योगी पंडित हर अलग अलग घट में उसी परमात्मा को देखता है। इसे व्यवहारिक रूप से संत तुलसीदास जी ने कहा - "सिया राम मय सब जग जानि ।
    करहूं प्रणाम जोरि जुग पाणि।।
    गीता जी के इस श्लोक का व्याख्या मानस का यह दोहा ही है ऐसा मेरा विचार है।
    प्रभु के प्रति प्रेम भाव और भक्ती के कारण हर जगह उन्ही का प्रकाश दिखता है।

    जवाब देंहटाएं

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