कबीर तहाँ न जाइये जहां सिद्ध को गाँव ,
स्वामी कहै न बैठना ,फिर फिर पूछै नांव।
भावसार :अपने को सर्वोपरि अभिमानी मानने वाले सिद्ध पुरुषों के स्थान पर भी मत जाओ क्योंकि स्वामी जी आपको ठीक से बैठने के लिए भी नहीं कहेंगे ,बार बार आपसे आपका नामा पूछेंगे।
आवत ही हरखे नहीं ,नैनं नहीं सनेह,
तुलसी तहाँ न जाइये चाहे कंचन बरखे मेह।
भावसार :जहां आपके प्रति आदर का भाव न हो वहाँ हरगिज़ न जाइये ,चाहे वह घर कितना ही धनधान्य से परिपूर्ण हो ,भले वहां सोना बरसता हो।
गारी ही से उपजै ,कलह कष्ट औ मीच ,
हारि चलै सो संत है ,लागि मरै सो नीच।
भावसार :गाली गलौंच से झगड़ा संताप ,मरने मारने तक की नौबत आ जाती है , इससे अपनी हार मानकर विरक्त होकर जो चलता है ,वही संत है। गाली गलौंच में जो व्यक्ति मरता है वही नीच है।
झूठे सुख को सुख कहे ,मानत है मन मोद ,
खलक चबैना काल का ,कुछ मुख में कुछ गोद।
भावसार :अरे मूरख जीव तू झूठे सुख को सुख कहता है और गर्व से फूले नहीं समाता ,मन में प्रसन्न होता है ,देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है जो कुछ तो मुख में है शेष थाली (गोद )में है।
इष्ट मिले अरु मन मिले ,मिले सकल रस रीति ,
कहै कबीर तहँ जाइये ,यह संतन की प्रीति।
भावसार :उपास्य ,उपासना पद्धति ,सम्पूर्ण रीतिरिवाज़ (खान पान त्यौहार )जहां पर मेल खाते हों ,वहीँ जाना संतों को प्रिय होना चाहिए।
कहते को कही जान दे ,गुरु की सीख तू लेय ,
साकत जन औ स्वान को ,फेरि जवाब न देय।
भावसार :उलटी पुलटि बात बकने वाले को बकने दो ,तुम दुष्ट पुरुष ( साकत ) और कूकर को पलट (उलट ) कर ज़वाब मत दो।
या दुनिया दो रोज़ की ,मत कर यासो हेत ,
गुरु चरनन चित लाइए ,जो पूरन सुख हेत।
भावसार :ये दुनिया दो दिन का मेला है ,दो रोज़ का झमेला है इससे नेहा न जोड़ो ,ममता मोह न रखो ,गुरु के चरणों में प्रीती लगाओ जिससे पूर्ण सुख की प्राप्ति होती है।
पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया ,लिखी लिखी के भया ईंट ,
कहे कबीरा प्रेम की लगी न एकौ छींट।
भावसार :ज्ञान से बड़ा प्रेम है। बहुत ज्ञान प्राप्त करके यदि मनुष्य पत्थर सा कठोर हो जाए ,ईंट जैसा जड़ या निर्जीव हो जाए -तो क्या पाया ?यदि ज्ञान मनुष्य रूखा रसहीन ,कठोर बनाता है तो ऐसे ज्ञान का क्या फायदा ?जिस मानव मन को प्रेम ने नहीं छुआ वह प्रेम के अभाव में निर्भाव जड़ हो जाएगा। प्रेम की एक बूँद एक छींटा जड़ता को मिटाकर मनुष्य को सजीव बना देता है।
साँची कहूं सुन लेओ सभै ,
जिन प्रेम कियो तीन ही प्रभ पायो। (गुरु गोविन्द सिंह )
पढ़ै गुनै सीखै सुनै मिटे न संसै सूल ,
कहे कबीर कासौ कहूं ,ये ही दुःख को मूल।
भावसार :बहुत सी पुस्तकों पढ़ा ,गुना सीखा ,पर फिर मन में गड़ा संशय का काँटा न निकला ,कबीर कहते हैं ,किसे समझाकर यह कहूँ ,यही तो सब दुखों की जड़ है। ऐसे पठन मनन से क्या लाभ जो मन का संशय न मिटा सके।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें