वो चीखें नहीं थप्पड़ की अनुगूँजे थीं। पूरे ६६ घंटा मेडिकल कॉलिज का जनरल वार्ड इन बेहद की जन -पीड़ा बनीं चीखों को झेलता रहा। पूरा वार्ड इन चीखों का सहभोक्ता बन चुका था। अकसर होता है ये छोटी सी समझी गई ज़िंदगी में जब आपकी पीड़ा उन तमाम लोगों ,चश्मदीदों को भी तदानुभूत पीड़ा रूप होने लगती है जो कभी आपको जानते ही नहीं थे। सड़क पर पड़े दुर्घटना ग्रस्त व्यक्ति को छटपटाते देख यही तदानुभूति मुझे आपको हम सबको होने लगती है।
उसी ने ये सब खुलकर बतलाया था जो इत्तेफाकन उस वक्त रेज़िडेंट था।पूछताछ का साक्षी था।
हाँ वह महिला मरते मरते भी प्रोफ़ेसर को अभयदान दे गई थी। उसने प्रोफ़ेसर के कान में बड़बड़ाया था -फ़िज़िक्स की किताब ....ड्राइंग की गोलमेज़।
वह बे -तहाशा घर की ओर लौटा था। बच्चे पड़ोसी के संरक्षण में थे। उसने किताबों के पन्नो में मौजूद वह अंतिम पत्र बेसब्री से सांस रोके पढ़ा ,पत्नी ने इसी का इशारा किया था।
"मुझे कोई अदृश्य शक्ति चला रही है मैं अवश हूँ। आपसे किसी अन्य से कोई शिकायत नहीं। हाँ आपने मुझे अच्छे से रखा है। कोई मुझे काबू किये है। "
आग लगी थी या लगाईं गई किसी ने नहीं देखा। बच्चे स्कूल में थे प्रोफ़ेसर अपने कालिज में। सूचना किसी और ने आकर दी। सर आप मेडिकल के आपात विभाग में पहुंचिए। आपके घर में आग लग गई थी।आपकी पत्नी इमरजेंसी वार्ड में हैं।
कुसूर वार वह थप्पड़ ही था।
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