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कहाँ गईं धर्मयुग एवं अन्य पत्रिकाएं -डॉ.चंद्र त्रिखा (हरियाणा साहित्य अकादमी )

कहाँ गईं धर्मयुग एवं अन्य पत्रिकाएं -डॉ.चंद्र त्रिखा (हरियाणा साहित्य अकादमी )

दोस्तो! पुराना बहुत कुछ वैयक्तिक अतीत की तरह प्रिय होता है। भला हो मष्तिष्क का जहां सीखने के साथ भूलने की प्रक्रिया भी चलती है लेकिन वही चीज़ें विस्मृति में विलीन होती है जो अप्रिय होतीं हैं। १९७० के  दशक में पत्र -पत्रिकाएं बुक रेक में मुखरित होतीं थीं आवाज़ देती थीं सारिका की कहानियां ,कभी आंचलिक कथा साहित्य तो कभी विश्वसाहित्य विशेषांक। धर्मयुग ,साप्ताहिक हिन्दुस्तान ,दिनमान ,हंस ,कादम्बिनी आदिक सप्ताही एवं मासिक पत्रिकाएं आपका मान सम्मान बढ़ातीं थीं।इनका संग साथ घर -दफ्तर कालिज  में हमारा निकटतम राजदान बना रहता था। 

वैयक्तिक भावजगत, रागात्मकता का श्रीवर्धन करती थीं ये पत्र-पत्रिकाएं। डॉ.चंद्र त्रिखा ने गुज़िस्तान दिनों की ही नहीं हमारे अतीत की ही याद ताज़ा कर दीं अपनी भावप्रवण शैली में । 

परिवर्तन की रफ़्तार में बने रहना भी एक कला है। परिवर्तन की वेगवती धारा आज सब कुछ को बहाये लिए जाए है। प्रौद्योगिकी से लेकर साहित्य ,साहित्येतर कलाओं ,ललित एवं प्रदर्शनात्मक कलाओं का तेवर रंग -रूप ,चंद शब्दों  में सिमटने समाने लगा है एनिमेशन आर्टिस्ट ,एनिमेशन आर्ट्स  ,म्युज़िक सिन्थे-साईंज़र ,मिक्सर अलावा इसके सब कुछ  ऑन लाइन हो रहा है ,इलेक्त्रोनी साहित्य का दौर है यह सर्वशक्तिशाली की उत्तर जीविता का सिद्धांत यहां भी तारी है.ई -बुक्स ,ई -अखबार बांचने की आदत डालिये।  

डॉ.चंद्र त्रिखा विलुप्त हो चुकी पत्र -पत्रिकाओं को स्मृति पटल पर टाँके हुए हैं। बीते कल की याद दिला देता है उनका सम्भाषण लेकिन अतीत को आदमी न ओढ़ सकता है न उसका बिछौना बना सकता है।अधुनातन साहित्य में जगह बनाती हाइकु कविता जैसी अन्य विधाओं से भी पाठक को रु -ब -रू करवाना पड़ेगा।ई -बुक्स की अवधारणा समझानी होगी।

आखिर में समस्या की जड़ पर ऊँगली रखे बिना ये समीक्षा आधी -अधूरी ही रहेगी यदि मैं इसका खुलासा न करूँ -आखिर कहाँ गए हिंदी के पाठक क्यों कालशेष हो गईं नामचीन पत्रिकाएं भले प्रिंट की कीमत बढ़ना एक वजह रही हो मूल वजह आज़ादी के बाद की दूसरी पीढ़ी को अंग्रेजी और अँग्रेज़ीयत की और धकेलना रहा उन्हें विलायती जूते नेहरुवियन पहनाने की माँ बाप की ललक रही -हमारा बेटा अंग्रेजी पढ़ेगा ,अंग्रेजी पढ़ी गई लेकिन हिंदी पीछे छूट गई। ऐसे में पाठक क्या मंगल ग्रह  से आते।हमारा जन्म १९४७ में हुआ मास्साब स्कूल (हिंदी स्कूल )में हमारी आरम्भिक शिक्षा हुई अंग्रेजी का मुखड़ा छटी कक्षा में देखा लेकिन इंटरमीडिएट साइंस में हमने हिंदी साहित्य का एक विषय के रूप में अंग्रेजी साहित्य के साथ साथ अनुशीलन भी एक विषय के बतौर किया। कहानी कला के तत्व पढ़े ,भक्तिकालीन कवियों को पढ़ा तो रीतिकालीन बिहारी सतसई भी पढ़ी ,भूषन और आलम को भी पढ़ा ,रस-छंद अलंकार के आकर्षण ने हमें विमोहित किया।आधुनिक हिंदी के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चंद्र को भी पढ़ा ,बालकृष्ण नवीन ,चंद्रधर शर्मा गुलेरी(उसने कहा था ) ,जयशंकर प्रसाद (आकाशदीप ),सूर्यकांत त्रिपाठी  निराला,सुमित्रानंदन पंत ,महादेवी वर्मा के संग सुभद्रा कुमारी चौहान (हल्दी  घाटी ) को पढ़ा। रामचंद्र शुक्ल को पढ़या गया। निबंध प्रबंध और महाकाव्य का भेद हमें समझाया गया। बोर्ड था अलाहाबाद बोर्ड ऑफ़ एजुकेशन ,अलावा इसके जिला स्तरीय अंताक्षरी प्रतियोगिताएं उन दिनों खूब होती थीं। कवि अलॉट होते थे उन्हीं की रचनाओं का सस्वर पाठ छात्र  कर सकते थे। 

कविसम्मेलन आये दिन होते थे मुशायरे नौचंदी और जिलों में लगने वाली नुमायशों के आकर्षण के केंद्र बनते थे। 

हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला ही नहीं मधुबाला भी हमें आज भी कंठस्त है। ये सब आकस्मिक नहीं था। समर्पित शिक्षकों की वाणी का आकर्षण इसके केंद्र में था। 

या अनुरागी  चित्त की गति समझे न कोय ,

ज्यों -ज्यों बूड़े श्याम रंग त्यों -त्यों उज्जल होय.

 बात साफ़ है भाषा ज्ञान अनुराग का विषय है। बातों -बातों में इस भूल का एहसास एक बातचीत के  दरमियाँ हमें कथाकार श्री अनिल गाँधी ने करवाया।         

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