अतिथि कविता :मगर हूँ बाप बेटी का (कविवर सरदार मंजीत सिंह )
शहर और गाँव के रावण ,हैं दीखते सब कलंदर से।
समझते खुद को सागर सा, जो नाले हैं ये बरसाती ,
इन्हीं में गंदगी करते दरोगा और नेताजी।
जो रक्षक हैं गौरइया के ,जलाकर आग बैठे हैं ,
सभी धर्मों के ठेकेदार फतवे देके ऐंठें हैं।
बया कितने बनाये घौसले भय लगता बंदर से।
विशेष :सरदार मंजीत सिंह से मेरा परिचय १९७० के दशक से है तब जब मैं राजकीय महाविद्यालय नारनौल में व्याख्याता के बतौर काम कर रहा था और आप एक होनहार छात्र थे जिसकी सांस्कृतिक गतिविधियों में अभिरुचि थी। आप अंग्रज़ी भाषा में स्नातकोत्तर उपाधि से विभूषित हैं हसोड़ कवि के रूप में आपकी दस्तक आलमी (भूमंडलीय )है। हास्यरस के आप जानेमाने हस्ताक्षर हैं काकाहथरसी पुरूस्कार से आप नवाज़े गए हैं। काका की तरह आप चीज़ों की गहरी समझ रखते हैं। मैं ने उनके लेखन की दोनों शैलियाँ देखीं हैं गंभीर किस्म का चिंतनपरक लेखन कविता का बाना पहने जब तब सहज रूप चला आता है। अलावा इसके मंचीय कवियों में आपका स्थान अलग है एक तो कवि ऊपर से सरदार। दुहरा हास्य श्रोताओं को गुदगुदाता है। हरियाणा साहित्य अकादमी का 'आदित्य अल्लहड़ सम्मान बरस २०१७ के लिए आपको दिया गया है।
मंजीत सिंह की इस कविता में सामाजिक झरबेरियों की सामूहिक चुभन के साथ दुश्चिंता है हर उस संरक्षक की जिसकी बहु बेटी बहन नवयौवना है। एक असुरक्षा का भावबोध आज हिन्दुतान की काया पर पसरा हुआ है जो मातापिता के स्तर पर और भी गाढ़ा हो जाता है डेन्स हो जाता है। वेषधारी साधुओं के रूप में आज हर और कलंदर ही कलंदर हैं ,सांप बिच्छू परिंदे और बाज़ हैं ये सबके सब जो तालिबानी बघनखे खोले टूट पड़ते हैं मासूम गौरैया के बदन पर।
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