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ज्यों संसार विषय सुख होता क्यों तीर्थंकर त्यागे

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भाषाकार : कविश्री भूधरदास

(दोहा)

बीज राख फल भोगवे, ज्यों किसान जग-माँहिं |
त्यों चक्री-नृप सुख करे, धर्म विसारे नाहिं ||१||

अर्थात चक्रवर्ती राजा जो राजाओं का भी राजा होता है राजपाट के सुख तो भोगे लेकिन धर्मपूर्वक आचरण करते हुए ही। 

(जोगीरासा व नरेन्द्र छन्द)

इहविधि राज करे नरनायक, भोगे पुण्य-विशालो |
सुख-सागर में रमत निरंतर, जात न जान्यो कालो ||

सुख का उपभोग करते वक्त खासकर अच्छे  दिनों में समय के बीतने का भान ही नहीं  होता ऐसे ही सुख के सागर में नरपति डूबे लेकिन आचरण की शुचिता बनाये रहे। वैराग्यपूर्वक इसका उपभोग करे।

(जात  न जान्यो कालो का अर्थ -यहां समय के व्यतीत होने का  भान न होने से है  )

एक दिवस शुभ कर्म-संजोगे, क्षेमंकर मुनि वंदे |
देखि श्रीगुरु के पदपंकज, लोचन-अलि आनंदे ||२||

(पूर्व जन्म के किसी पुण्यकर्म की फलश्रुति के रूप एक दिन मुनि श्रेष्ठ क्षेमंकर राजा के पास से गुज़रे - राजा ने उनके चरण कमलों की वंदना की और उन्हें देर तक निहारते रहे। )

तीन-प्रदक्षिण दे सिर नायो, कर पूजा थुति कीनी |
साधु-समीप विनय कर बैठ्यो, चरनन-दिठि   दीनी ||
गुरु उपदेश्यो धर्म-शिरोमणि, सुनि राजा वैरागे |

(राज-रमा वनितादिक जे रस, ते रस बेरस लागे ||३||(राजा ने मुनि क्षेमंकर की तीन परिक्रमा करते हुए उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया। उनका वंदन किया स्तुति की यहां थुति शब्द  अपभ्रंश रूप है स्तुति का। गुरु के उपदेश सुनकर राजा वैराग्य को प्राप्त हुए ,यहां दिठि का अर्थ दृष्टि है.उन्हें अपना राज पाट , धन वैभव लक्ष्मी अब उनके लिए बिना रस  के प्रतीत हुए , निःस्वाद हो गए  )

मुनि-सूरज-कथनी-किरणावलि, लगत भरम-बुधि भागी |
भव-तन-भोग-स्वरूप विचार्यो, परम-धरम-अनुरागी ||

(मुनि उन्हें सूर्य एवं उनके कथन रश्मिपुंज  से लगे इन वचनों को सुनकर उनकी बुद्धि निर्भ्रम  हो गई ,इस संसार का ,देह सुख भोग के स्वरूप पर वे विचार करने लगे और धर्म के प्रति उनका अनुराग अब और भी ज्यादा हो गया )

इह संसार-महावन भीतर, भरमत ओर न आवे |
जामन-मरन-जरा दव-दाझे , जीव महादु:ख पावे ||४||

(इस संसार रुपी भयंकर वन में  जन्म मरण ज़रा यानी बुढ़ापे की अग्नि निरंतर हमें जला रही है। जामन माने जन्म ,दाझे माने जलाये )

कबहूँ जाय नरक-थिति भुंजे, छेदन-भेदन भारी |
कबहूँ पशु-परयाय धरे तहँ, वध-बंधन भयकारी ||

(थिति माने स्थिति ,कभी इसे नरकों की पूरी अवधि भोगनी काटनी  पड़ती है वहां के भयंकर कष्ट उठाने पड़ते हैं ,कभी  पशु यौनि को प्राप्त हो यह  जीव अनेक प्रकार से बांधा जाता है इसका वध किया जाता है। ) 

सुरगति में पर-संपति देखे, राग-उदय दु:ख होई |
मानुष-योनि अनेक-विपतिमय, सर्वसुखी नहिं कोई ||५||

(देवगति ,देवयोनि में जाकर भी जीव वहां के ऐश्वर्य रागरंग को अपने से अधिक देख मनो -दुःख ही भोगता है क्योंकि इस संसार की गति ही ऐसी है स्वरूप ही ऐसा है यहां दुखभोग ही है ,दुखमय है ये संसार।नानक दुखिया सब संसार ,ते सुखिया जिन नाम धार -मनुष्य यौनि तो और भी अनेक विपत्तियों दुखों से भरी हुई है इस संसार में सुखी कोई नहीं है  ). 

कोई इष्ट-वियोगी विलखे, कोई अनिष्ट-संयोगी |
कोई दीन-दरिद्री विलखे, कोई तन के रोगी ||

(भले जो एक व्यक्ति के लिए है वह दूसरे के लिए भी वांछित हो यह ज़रूरी नहीं है -ईष्ट व्यक्ति या फिर कोई वस्तु तो भी वांछित चीज़ के अभाव में वांछित व्यक्ति के न होने पर दुःख में बिलखता है जीव जबकि एक कोई और जीव कोई अन्य किसी अनिष्ट के होने पर।) 

किस ही घर कलिहारी नारी, कै बैरी-सम भाई |
किस ही के दु:ख बाहर दीखें, किस ही उर दुचिताई ||६||

(किसी घर में कलह प्रियाएँ बैठीं हैं तो कहीं भाई ही दुश्मन हो जाता है। कोई धन न होने से दुखी तो कोई शरीर दुःख भोग से ग्रस्त है भले बे -शुमार संपत्ति का वह मालिक होवे।किसी के दुःख प्रकट होतें हैं कुछ अंदर अंदर कल्पते रहते हैं बाहर से इन के दुःख दिखलाई भले न दें  )


कोई पुत्र बिना नित झूरे, होय मरे तब रोवे |
खोटी-संतति सों दु:ख उपजे, क्यों प्रानी सुख सोवे ||

(कोई पुत्र संतान आदि न होने पर दुखी रहता है तो कोई संतानप्राप्ति के बाद उसके जीते जी संतान के शरीर छोड़ देने से गहन दुःख भोगता है ,और यदि संतान नालायक निकल जाए तब  तो दुखों की इंतिहा ही हो जाती है प्राणी किसी भी प्रकार सुख को प्राप्त नहीं होता है ) 

पुण्य-उदय जिनके तिनके भी, नाहिं सदा सुख-साता |
यह जगवास जथारथ देखे, सब दीखे दु:खदाता ||७||

(जिनके पुण्य उदित हैं चढ़ती कला में हैं जो लोग उनके सुख भी सदा के लिए भी कहाँ ठहरते हैं। ये संसार यथार्थ में दुःख का ही स्वरूप है यहां सब दुःख ही देने वाले हैं अनुभव में यही दिखता है। )

जो संसार-विषे सुख होता, तीर्थंकर क्यों त्यागे |
काहे को शिवसाधन करते, संजम-सों अनुरागे ||

(यदि संसार के विषय भोगों में सुख होता तो क्यों तीर्थंकर उसका त्याग करके वन में जाकर तप करते ,संयम धारण करते वह इस संसार का असली स्वरूप समझ गए थे और यह भी के हर सुख के कंधे पर दुःख खड़ा ही है ऐसा सुख कहाँ जिसके पीछे दुःख ना होवे )

देह अपावन-अथिर-घिनावन, या में सार न कोई |
सागर के जल सों शुचि कीजे, तो भी शुद्ध न होई ||८||

(अपने मूल स्वरूप से ही हमारी यह देह अशुद्ध अपावन है कभी ये शुद्ध नहीं हो सकती भले एक पूरे महासागर से इसका शोधन किया जाए ,देह में कोई चीज़ काम की नहीं है। इस शरीर के अंदर जाकर चरम के नीचे आप देखोगे तो यह मलमूत्र का भांडा ही है। जिसके नौ द्वारों से मल ,अपशिष्ट पदार्थ ही स्रावित होता है भले आप कितना  संभाल कर लें। इसके तुल्य  कुछ भी नहीं है। अनेक व्याधियों का घर है यह देह। साज संवार छोड़के देखिये इस देह का मिज़ाज़ रूप रंग )

सात-कुधातु भरी मल-मूरत, चर्म लपेटी सोहे |
अंतर देखत या-सम जग में, अवर अपावन को है ||
नव-मलद्वार स्रवें निशि-वासर, नाम लिये घिन आवे |
व्याधि-उपाधि अनेक जहाँ तहँ, कौन सुधी सुख पावे ||९||

( इस शरीर के अंदर जाकर चरम के नीचे आप देखोगे तो यह मलमूत्र का भांडा ही है। जिसके नौ द्वारों से मल ,अपशिष्ट पदार्थ ही स्रावित होता है भले आप कितना  संभाल कर लें। इसके तुल्य  कुछ भी नहीं है। अनेक व्याधियों हारी बीमारी का घर है यह देह। साज संवार छोड़के देखिये इस देह का मिज़ाज़ रूप रंग इससे अपावन घिनौना रूप संसार में और किसी का भी नहीं है ऐसे में कौन इस देह से सुख की कामना करेगा अर्थात कोई भी नहीं  )

पोषत तो दु:ख दोष करे अति, सोषत सुख उपजावे |
दुर्जन-देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावे ||
राचन-योग्य स्वरूप न याको, विरचन-जोग सही है |

(यह तन पाय महातप कीजे, या में सार यही है ||१०||(कोई मूर्ख ही होगा जो इस दुर्जन तुल्य शरीर से प्रीती बढ़ावेगा जैसे दुर्जन को कितना को  भी पोषित कर लो वह किसी का सगा नहीं होता ऐसे ही इस शरीर की साज श्रृंगार बस कुछ  दिन के लिए मुल्तवी कर दो फिर  देखो कैसे यह किसी वैरी की तरह बदला लेता है यह दुर्जन वत शरीर राग -अनुराग करने लायक नहीं है  इससे विरक्त  रहना ही ठीक.इसका सदुपयोग ही कीजिये इसका उपयोग तप योग के लिए कीजिये मोक्ष के लिए प्रयत्न कीजिये सार बस  यही है जब इस शरीर को प्राप्त ही किया है तो इसे तपबल में लगाइये   )


भोग बुरे भवरोग बढ़ावें, बैरी हैं जग-जी के |
बेरस होंय विपाक-समय अति, सेवत लागें नीके ||

( भोगों में   जितना भी लीन होंगे फलश्रुतु इनकी उतनी कष्टकारक ही होती है।भोगों में सुख की कल्पना तो है सुख है नहीं है। भोगों के फलस्वरूप अंत में बे -रस ही मिलता है।स्थाई नहीं इनसे प्राप्त सुख। लोक परलोक दोनों में ही इनकी फलश्रुति कड़वी ही आती है )  

वज्र अगिनि विष से विषधर से, ये अधिके दु:खदाई |
धर्म-रतन के चोर चपल अति, दुर्गति-पंथ सहाई ||११||

(भोगों की मार वज्र की मार से ज्यादा मारक अग्नि की दाह  से ज्यादा दाहक और सांप से जहर से ज्यादा विषमय है सांप का जहर तो उतर  जाता है भोग रोग बना रहता है। जो इनसबसे ज्यादा दुःख देने वाला साबित होता है। रावण की सीता के प्रति आसक्ति उसे समूल नष्ट कर देती है। धर्म रुपी रत्न के चोर है भोग दुर्गति में सहायक।) 


मोह-उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने |
ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन माने ||
ज्यों-ज्यों भोग-संजोग मनोहर, मन-वाँछित जन पावे |
तृष्णा-नागिन त्यों-त्यों डंके, लहर-जहर की आवे ||१२||

(जैसे कोई नशेड़ी धतूरा खाने पर हर चीज़ को सोना ही देखता मानता है वैसे ही भोग रूपा धतूरा खाकर अज्ञानी दुःख फल-श्रुति भोगों को ही भला बूझने लगता है। आबालवृद्ध होने तक अपना सारा जीवन इसी मोह माया के पीछे दौड़ता हुआ व्यर्थ कर देता है।भगासक्ति की गिरिफ्त में पड़ा मनुष्य भोग रुपी नागिन से डसा जाता है ये जहर धीरे धीरे उस पर चढ़ता ही जाता है यहां तक वह अपना जीवन देने को भी राजी हो लेता है भोग ही उसे खा जाते है लेकिन भोगाग्नि शांत नहीं होती।  )

https://www.youtube.com/watch?v=J9AqrE2Ejdg

मैं चक्री-पद पाय निरंतर, भोगे भोग-घनेरे |
तो भी तनक भये नहिं पूरन, भोग-मनोरथ मेरे ||

(राजा चक्रवर्ती नाभि आत्मा -लोचन करते हुए सोचने लगते हैं मैंने तो इन भोगों को निर्बाध निरंतर भोगा है फिर भी भोगों के प्रति मेरी वासना न गई।  और अभी और की कामना शेष रह गई )

राज-समाज महा-अघ-कारण, बैर-बढ़ावन-हारा |
वेश्या-सम लछमी अतिचंचल, याका कौन पत्यारा ||१३||

(राजा स्वयं से कहता ये मेरा राजपाट वैभव सम्पति ही मेरे विनाश का कारण बनती हुई मेरे प्रति लोगों का वैर भाव बढवा रही है और ये धन -संपत्ति ये लक्ष्मी तो चंचला है यह वैश्या की तरह किसी के भी पास नहीं टिकती। राजपाट करते यदि मैंने ये शरीर छोड़ दिया तो परलोक में नर्क का ही वासा होगा फिर। )


मोह-महारिपु बैरी विचारो, जग-जिय संकट डारे |
घर-कारागृह वनिता-बेड़ी, परिजन-जन रखवारे ||(राजा विचारता है ये मोह ही मेरे पांवों में  बेड़ी डाले हुए है ये शरीर मेरा एक कारागार बन के  रह गया है और मेरी ९६ हज़ार रानियां ही मेरी बेड़ियाँ बन गईं हैं शेष संबंधी मेरा चौकीदारा करते हैं कहीं मैं ये बेड़ियाँ तुड़ा के भाग ना जाऊं। )

सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चरण-तप, ये जिय के हितकारी |
ये ही सार असार और सब, यह चक्री चितधारी ||१४||

(राजा इस नतीजे पर पहुंचता है विचारते- विचारते -सम्यक ज्ञान ,सम्यक तप और सम्यक आचरण ही मेरा धर्म है बाकी सब निस्सार है। मोक्ष की ओर ये ही ले जा सकते हैं बाकी सब जी का जंजाल है। )

छोड़े चौदह-रत्न नवों निधि, अरु छोड़े संग-साथी |
कोटि-अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी-लख हाथी ||

(इस प्रकार विचारते हुए राजा ने चौदह रत्न नौ निधियां मातहत बत्तीस हज़ार अन्य राजाओं ,अपने तमाम रानियों ,अठारक करोड़ अश्वों और चौरासी लाख हाथियों का त्याग कर देता है। राजा के अहम का नाश हो जाता है )

इत्यादिक संपति बहुतेरी, जीरण-तृण-सम त्यागी |
नीति-विचार नियोगी-सुत को, राज दियो बड़भागी ||१५||(राजा वज्र नाभि इस प्रकार अपनी सारी संपत्ति को डाल  से स्वयं टूटे पत्तों की तरह त्याग मुनि हो गए राजपाट योग्य पुत्र को सौंप साधना में लीन हो गए। )

(होय नि:शल्य अनेक नृपति-संग, भूषण-वसन उतारे |
श्रीगुरु-चरण धरी जिन-मुद्रा, पंच-महाव्रत धारे ||(इस प्रकार राजा पाँचों व्यसनों काम क्रोध लोभ माया मोह आदिक को अन्य राजाओं के संग मार्ग में आये हुए मुनिवर के चरणारविन्द में ध्यान लगा समाधिस्थ हो गए जिनमुद्रा  में आगये। )

धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धनि यह धीरज-धारी |
ऐसी संपति छोड़ बसे वन, तिन-पद धोक हमारी ||१६||

(राजा का यह आत्मालोचन ,ये बूझ धन्य है इससे पैदा विवेक बुद्धि धन्य है जो इस संसार में सहज सुलभ बिलकुल नहीं  अर्थात दुर्लभ है। ऐसे मुनित्व को हम सभी पाठक  नमस्कार करते हैं।आपकी धीरता  भी धन्य है अनुकरणीय है जो आप सबकुछ छोड़ सर्वस्य-त्यागी बन वन को चले गए निर्वाण प्राप्ति के लिए , )

(दोहा)

परिग्रह-पोट उतार सब, लीनों चारित-पंथ |
निज-स्वभाव में थिर भये, वज्रनाभि निरग्रंथ ||(इस प्रकार राजा ने अंतरंग और बहिर्मुखी तमाम परिग्रहों को उतार फेंका और मुनिवर्तों को अंगीकार किया। और महामुनिराज हो गए बतलाते हुए इस संसार में कहीं कोई सुख का टुकड़ा नहीं है जो स्थाई हो। यहां पोट माने वस्त्र है परिग्रह माने संचय की प्रवृत्ति ,ढोंक माने प्रणाम। )

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