लेकिन आदमी की आँख भी गज़ब कर देती है। पति की तो और भी ज्यादा देख लेती है। यही है पैरानोइया पैरानॉयड बिहेवियर सोशल शिज़ोफ्रेनिया।
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(२)Lajwanti (1958) - Lajwanti (1958) - User Reviews - IMDb
इस जमाने को प्रेम अच्छा लगता है ना प्रेमी। स्त्री -पुरुष संबंधों की अपनी ही भाव छवि बनाये बैठा है ज़माना।इसी बनी बनाई मन गढंत छवि का शिकार बनती हैं " लाजवंती "की नायिका कविता (अदाकारा नरगिश ). पति एक नामीगिरामी एडवोकेट हैं वकालत में पूरी तरह गुम। पत्नी टुकुर टुकुर उनकी बाट जोहा करती है। विशेष और आम दिनों में भी कोई निश्चय नहीं रहता उनके आने का।
इसी दरमियान यूरोप से उनके मित्र लौटते हैं एक बेहद ज़िंदादिल इंसान सच्चे सीधे दोस्त हैं सुनील ज़माना उनके और कविता के किरदार का अफ़साना बना देता है। बस उनका कुसूर इतना है वह अपनी भाभी साहिबा का पोर्ट्रेटिएट(एक व्यक्ति चित्र )बनाकर अपने दोस्त निर्मल की आने वाली विवाह की सालगिरह पर सौंपना चाहता है ताकि उसे निर्मल के वैयक्तिक चित्र के साथ सज्जित किया जा सके। इसी आशय को मूर्त रूप देने के लिए सुनील के घर कविता के सब्जिक्ट के बतौर बैठकें होने लगती हैं। कविता की अपनी भाभी ही शक़ के बीज को उर्वरा ज़मीन देकर निर्मल के दिलोदीवार में रोप देती हैं । आदमी को बाहर वही दिखलाई देता है जो उसके भीतर होता है।
जबकि लेडीज़ टेलर का महिला का नाप लेना चित्रकार -छविकार का सब्जिक्ट को संवारना पोज़ बनाना - बनवाना एक सामान्य शिष्टाचार व्यवहार है। लेकिन आदमी की आँख भी गज़ब कर देती है। पति की तो और भी ज्यादा देख लेती है। यही है पैरानोइया पैरानॉयड बिहेवियर सोशल शिज़ोफ्रेनिया।
अपने किरदारों को नूतन भावच्छटायें मुहैया करवाते हैं निर्मल (बलराजसाहनी )और कविता।
छवियाँ समाज मन पर किस तरह ग़ालिब हो जाती हैं इसका खुलासा बेबी नाज़ नायकनायिका की बेटी के रूप में करतीं दिखलाई दीं हैं। सौतेली माँ बच्चों के कोमल मन में दाईंन बनी बैठी है। बेबी नाज़ के अपरिपक्व गंभीर अभिनय की छाप से आप बच न सकेंगे। फिल्म को मिस करने की गलती न करें। अभिरुचि बनी रहे इसलिए कथा कहानी बयान नहीं की है।फिल्म में गिनती के गीत हैं "गा मेरे मन गा ...",कुछ दिन पहले इसी ताल में रहता था एक हंस का जोड़ा ...."आशा भौंसले का स्वर बर्मन दा का कर्णमधु संगीत माधुर्य से भरपूर हैं। निर्देशन उच्च कोटि का है। कथा में नारी का अबला नहीं सबला रूप उभरा है जो किसी भी हालात में कमज़ोर नहीं पड़ती है। धैर्य और दृढ़ता की मूरत बन के आया है कविता का किरदार जो मुश्किल हालातों को पटखनी देती चलतीं हैं आगे की ओर।फिल्म केन्ज़ फिलफेस्टिवल में पुरुस्कृत हुई थी (१९५९ ),नेशनल एवार्ड विनर रही है "लाजवंती "
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